Bihar
महागठबंधन को चाहिए एक मजबूत दलित चेहरा: क्या मायावती या प्रकाश अंबेडकर होंगे विकल्प ?
कांग्रेस पार्टी ने कुछ दिन पहले बिहार के पटना शहर में ‘अतिपिछड़ा न्याय संकल्प’ पत्र कि घोषणा की। इस घोषणा में दस मुद्दो पर चर्चा की गई जिसके माध्यम से आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के लिये अतिपिछड़ा वर्ग के लिये कांग्रेस-आरजेडी कि ओर से भरोसा दिया गया हे। ये वादे कांग्रेस द्वारा खुद को बहुजनों की पार्टी के रूप में स्थापित करने के लिए किए गए कई प्रयासों में से एक हैं। लेकिन वास्तविकता इससे कोसों दूर है। एक कठोर वास्तविकता यह है कि कांग्रेस या महागठबंधन के पास कोई लोकप्रिय दलित नेता नहीं है – जो बहुजन प्रतिनिधित्व और अम्बेडकरवाद के उनके दावों के विपरीत है।
बिहार की राजनीति और सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि –
बिहार की राजनीति हमेशा जातीय गणित, सामाजिक न्याय और मंडल आंदोलन से प्रभावित रही है। मंडल आंदोलन ने पिछड़ों और दलितों को राजनीतिक चेतना दी और उनके लिए सत्ता में हिस्सेदारी के द्वार खोले। आज भी सामाजिक न्याय और बहुजन राजनीति के मुद्दे ज़िंदा हैं, लेकिन नई चालों और नए समीकरणों के साथ।
महागठबंधन की चुनौती : सामाजिक न्याय की प्रतीकात्मकता या वास्तविक नेतृत्व?
राहुल गांधी और महागठबंधन आज “सामाजिक न्याय” और “बहुजन राजनीति” की बात कर रहे हैं। डॉ.बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के नाम पर नारे दिए जा रहे हैं और दलित-बहुजन विमर्श को अपनाया जा रहा है। लेकिन क्या यह सिर्फ़ प्रतीकात्मकता है, या वास्तव में नेतृत्व और प्रतिनिधित्व भी मौजूद है?
कांग्रेस पार्टी कि विरासत और कथनी में काफी विरोधाभास रहा हे। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ब्राह्मण परिवार से आते हैं और कांग्रेस का इतिहास सामाजिक न्याय विरोधी रहा है। जिस मंडल कमिशन की बात आज कांग्रेस कर रहा हे, उसी मंडल कमिशन की रिपोर्ट को 10 साल तक कांग्रेस कि केंद्र वाली सरकारने दबाये रखा था। जब व्ही.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने तब उन्होने इस कमिशन को लागू किया। मंडल कमीशन का विरोध और बहुजन नेताओं के साथ संघर्ष इसके कई उदाहरण हैं। आज के नारे वही व्यवस्थागत विरोधाभास दर्शाते हैं, जिसकी निर्माता कांग्रेस पार्टी रही है।
बिहार के महागठबंधन में नेतृत्व का असंतुलन बडा हे। हालांकि कांग्रेस नेतृत्व में दलित प्रतीक रख सकती है, असली सत्ता गांधी परिवार के पास है। आरजेडी यादव नेतृत्व वाली है और महागठबंधन में एक शक्तिशाली दलित चेहरा नदारद है। यह केवल एक कमी नहीं, बल्कि राजनीतिक अवसर की भी बड़ी चुनौती है।
भाजपा-जेडीयू गठबंधन का तुलनात्मक लाभ –
भाजपा-जेडीयू गठबंधन में चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दलित नेता मौजूद हैं। उनके कारण दलित समुदाय के लिए यह गठबंधन स्वाभाविक विकल्प बनता जा रहा है। महागठबंधन के पास फिलहाल ऐसा कोई चेहरा नहीं है।
महागठबंधन को ये बात ध्यान में रखना चाहीये कि, वादों से नहीं, प्रतिनिधित्व से होगी साख। महागठबंधन को दलित-बहुजन राजनीति की बात करते हुए उन्हे वास्तविक प्रतिनिधित्व देना होगा। केवल नारेबाज़ी से यह आंदोलन खोखला और अवसरवादी प्रतीत होगा। यह दलित बहुजन समाज के लिए, प्रतिनिधित्व के बिना राजनीतिक विनियोग जैसा लगेगा।
आरजेडी के लिए यह रणनीतिक अवसर हे। आरजेडी कांग्रेस से अधिक लाभ उठा सकती है, यदि वह एक मजबूत दलित नेता को मंच पर लाए। इससे न केवल कांग्रेस के प्रभाव को संतुलित किया जा सकेगा, बल्कि नया सामाजिक समीकरण भी बन सकता है।
संभावित दलित नेता : मायावती और प्रकाश अंबेडकर
मायावती और प्रकाश अंबेडकर जैसे नेता, जो बहुजन आंदोलन के प्रतीक रहे हैं, महागठबंधन में नई ऊर्जा ला सकते हैं। इनका आरजेडी के साथ वैचारिक तालमेल कांग्रेस से ज़्यादा स्वाभाविक दिखाई देता है। लालू प्रसाद यादव, कांशीराम और प्रकाश अंबेडकर मंडल आंदोलन के साथी रहे हैं। इन लोगो ने मिलकर 90 के दशक में देशभर में मंडल आयोग लागू करवाया और उसकी सराहना भी कि थी।
देशभर में बहुजन आंदोलन और नेतृत्व की भूमिका अहम रही हे।
मायावती ने उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज को सत्ता तक पहुँचाया, जबकि प्रकाश अंबेडकर ने महाराष्ट्र में बहुजन विचारधारा को जमीनी स्तर तक फैलाया। उनका सम्मिलन महागठबंधन को वैचारिक स्पष्टता और व्यापक जनाधार दोनों दे सकता है।
यदि महागठबंधन सच में सामाजिक न्याय की राजनीति करना चाहता है, तो उसे मंच पर शक्तिशाली दलित नेता को लाना होगा। अन्यथा यह आंदोलन केवल प्रतीकात्मकता और दलित-बहुजन पहचान की राजनीतिक चोरी बनकर रह जाएगा। अब समय आ गया है कि आरजेडी और महागठबंधन न केवल नारे दें, बल्कि वास्तविक नेतृत्व सौंपें – तभी सामाजिक न्याय की लड़ाई सच्ची मानी जाएगी।
– विलास टेकाळे, (राजनीतिक, सामाजिक विषयो पर अख़बार मे स्तंभ लेखन करते हे। साथ ही साथ पिछले तीस साल से जादा महाराष्ट्र के बहुजन मूव्हमेंट से जुडे़ हैं। )
